कविता संग्रह >> टुकड़ा कागज का टुकड़ा कागज काअबनीश सिंह चौहान
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कल्पना, भाव, संवेदना, यथार्थ - सब कुछ संजोता है - टुकड़ा कागज का
इस काव्य संग्रह की रचनाओं के मुख्य दो छोर दिखायी पड़ते हैं, जिसका एक सिरा टुकड़ा कागज का शीर्षक गीत तथा दूसरा अपना गाँव समाज है। दोनों के बीच राजमार्ग का सुहाना किन्तु असुरक्षित सफर, पगडंडियां बनाने और उन पर चलने अर्थात् नई राहों की खोज, अँजुरी में भरे शीतल मीठे जल की मानिन्द अँगुलियों की फाँक से रिसते जाते सामाजिक रिश्ते और आँखों की कोरों में बूँद बनकर थमी-थमी सी पारिवारिक आत्मीयता, सम्मोहित करने वाली प्राकृतिक झाँकियां, यांत्रिक और मशीनी जीवन की आत्मकेन्द्रीयता, विज्ञान की उपयोगी और तल्ख उपलब्धियाँ - जैसे जगत और जीवन के विविध परिदृश्य और नवगीत के रूप में उन सब की विन्यस्ति दिखायी पड़ती है। कल्पना, भाव, संवेदना, यथार्थ - सब कुछ संजोता है - टुकड़ा कागज का ।-
कभी पेट की चोटों को
आँखों में भर लाता
कभी अकेले में भीतर की
टीसों को गाता
अंदर-अंदर लुटता जाए
टुकड़ा कागज का।
कभी पेट की चोटों को
आँखों में भर लाता
कभी अकेले में भीतर की
टीसों को गाता
अंदर-अंदर लुटता जाए
टुकड़ा कागज का।
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